सत्यानुसरण-7
श्री श्री ठाकुर अनुकूल
चन्द्र जी ने अपने अनमोल वाणी में कहा है की –जैसे आदर्श में तुम विश्वास स्थापना
करोगे , तुम्हारा स्वभाव भी उसी तरह होगा और तुम्हारा दर्शन भी तद्रूप ही होगा I
विश्वासी का अनुसरण करो ,
प्रेम करो , में भी विश्वास आएगा I
मुझे विश्वास नही है – इस
भाव के अनुसरण से मनुष्य विश्वासहीन हो जाता है I विश्वास नही हो, ऐसा मनुष्य नही
I जिसका विश्वास जितना गहरा है , जितना उच्च है , उसका मन उतना ही उच्च है , जीवन
उतना ही गहरा है I जो सत में विश्वासी है वह सत होगा ही और असत मेविश्वासी असतहो
जाता है I
विश्वास विरुद्ध भाव द्वारा
आक्रांत होने पर ही संदेह आता है I विश्वास संदेह द्वारा अभिभूत होने पर मन जब उसे ही समर्थन करता है
तभी अवसाद आता है I
प्रतिकूल युक्ति त्याग कर
विश्वास के अनुकूल युक्ति के श्रवण एवं मनन संदेह दुरिभूत होता है , अवसाद नही
रहता I विश्वास पक जाने पर कोई भी विरुद्ध भाव उसे हिला भी नही सकता I
प्रकृति विश्वासी को संदेह
ही क्या करेगा या अवसाद ही क्या करेगा I संदेह को प्रश्रय देने से वह घूण की तरह
मन पर आक्रमण करता है , अंत में अविश्वासरूपी जीर्णता की चरम मलिन दशा को प्राप्त
होता है I संदेह का निराकरण कर विश्वास की स्थापना करना ही है ज्ञान प्राप्ति I
तुम यदि पक्के विश्वासी
होते हो , विश्वास अनुयायी भाव के सिवाय जगत का कोई विरुद्ध भाव , कोई मन्त्र ,
कोई शक्ति तुम्हे अभिभूत या तुम पर जादू नही कर सकेगी , निश्चय जानो I
तुम्हारे मन से जिस परिमाण
में विश्वास हटेगा , जगत तुम पर उसी परिमाण में संदेह करेगा या अविश्वास करेगा एवं
दुर्दशा भी तुम पर उसी परिमाण में आक्रमण करेगी, यह निश्चित है I अविश्वास क्षेत्र
दुर्दशा या दुर्गति का राजत्व है I
विश्वास –क्षेत्र बड़ा ही
उर्वर है I सावधान , अविश्वासरूपी जंगल –झाड़ के संदेहरूपी अंकुर निकलते देखते ही
तत्क्षण उसे उखाड़ फेंको , नही तो भक्ति रूपी अमृत बढ़ नही सकेगा I श्रद्धा और
विश्वास दोनों भाई है , एक के आते ही दूसरा भी आता है I
संदेह का निराकरण करो ,
विश्वास के सिंहासन पर भक्ति को बैठाओ , ह्रदय में धर्मराज्य संस्थापित हो I सत
में निरावच्छित्र संलग्न रहने की चेष्टा को ही भक्ति कहते है I
भक्त ही प्रकृत ज्ञानी है ,
भक्तिविहीन ज्ञान वाचकज्ञान मात्र है I तुम सोSमं ही बोलो या ब्रह्मास्मि ही बोलो , किन्तु
भक्ति आवलंबन करो , तभी वह भाव तुम्हे आवलंबन करेगा , नही तो किसी भी तरह कुछ नही
होगा I
विश्वास जैसा है , भक्ति
उसी तरह आएगी एवं ज्ञान भी होगा तद्नुयायी I पहले निरहंकार होने की चेष्टा करो ,
बाद में ‘सोSमं’ कहो , नही तो ‘सोSमं तुम्हे और भी अध:पतन में
ले जा सकता है I तुम यदि सतचिंता में
संयुक्त रहने की चेष्टा करते हो , तुम्हारी चिंता , आचार , व्यवहार इत्यादि उदार
एवं सत्य होते रहेंगे और वे सब भक्त के लक्षण है I
संकीर्णता के निकट जाने से
मन संकीर्ण हो जाता है एवं विस्तृत के निकट जाने से मन विस्तृत लाभ करता है ;उसी
प्रकार भक्त के निकट जाने से मन उदार होता है और जितनी उदारता है उतनी ही शांति I
विषय में मन संलग्न रहने को
आसक्ति कहते है और सत में मन संलग्न रहने को भक्ति कहते है I प्रेम भक्ति की ही क्रमोंन्न्ती
है I भक्ति का गाढत्व ही प्रेम है I अहंकार जहाँ जितना पतला है भक्ति भाव का स्थान
भी वहाँ उतना ही अधिक है I
भक्ति विना साधन में सफल
होने का उपाय कहाँ है? भक्ति ही सिद्धि ला दे सकती है I विश्वास जिस तरह अन्धा नही
होता , भक्ति भी उसी तरह मूढ़ नही होती I
भक्ति में किसी भी समय किसी
भी तरह की दुर्बलता नही I क्लीवत्व , दुर्बलता बहुधा भक्ति का वेश पहन कर खड़े होते
है , उनसे सावधान रहना I
थोडा रो लेने से ही या
नृत्य –गितादी में उत्तेजित होकर उछल-कूद करने से ही जो भक्ति हुई ,ऐसी बात नही
है; सामयिक भावोन्मत्तादी भक्त के लक्षण नही है I भक्त के चरित्र में पतला अहंकार
का चिह्न , विश्वास का चिह्न , सत-चिंता का चिह्न , सद्व्यवहार का चिह्न एवं
उदारता इत्यादि के चिह्न कुछ -न- कुछ रहेंगे ही , नही तो भक्ति नही आएगी I
विश्वास नही आने पर निष्ठा
नही आती और निष्ठा के बिना भक्ति रह नही सकती I
दुर्बल भावोन्मत्ता अनेक
समय भक्ति जैसी दिखाई पड़ती है , वहाँ निष्ठा नही और भक्ति का चरित्रगत लक्षण भी
नही है I जिसके ह्रदय में भक्ति है वह समझ नही पाता की वह भक्त है और दुर्बल ,
निष्ठाहीन केवल भाव-प्रवण , मोटा अहमयुक्त ह्रदय सोचता है – मै खूब भक्त हूँ I
अश्रु , पुलक , स्वेद , कम्पन
होने से ही जो वहाँ भक्तिआयी . ऐसी बात नही , भक्ति के इन सब के साथ अपना स्वधर्म
चरित्रगत लक्षण रहेगा ही I
अश्रु , पुलक , स्वेद ,
कम्पन इत्यादि भाव के लक्षण है; वे अनेक प्रकार के हो सकते है I भक्ति के चरित्रगत
लक्षणों के साथ यदि उस भाव के वे लक्ष्ण प्रकाश पायें तभी वे सात्विक भाव के लक्षण
है I
नकली भक्ति मोटा-अहंकार-युक्त
होती है , असली भक्ति होती है अहंकार –मुक्त अर्थात खूब पतला अहंकार-युक्त I नकली
भक्ति – युक्त मनुष्य उपदेश नही ले सकता , उपदेश के रूप में उपदेश केवल दे सकता
है;इसलिए कोई उसे यदि उपदेश देता है तो उसके चेहरे पर क्रोध के लक्षण , विरक्ति के
लक्षण ,संग छोड़ने की चेष्टा इत्यादि लक्षण प्राय: स्पष्ट प्रकाश पाते है I
असली भक्ति –युक्त मनुष्य
उपदेष्टा का आसन लेने में विल्कुल ही गैरराजी होता है I यदि उपदेश पाता है , उसके
चेहरे पर आनंद के चिह्न झलकने लगते है I अविश्वासी एवं बहुनैष्ठिक के ह्रदय में
भक्ति आ ही नही सकती I भक्ति एक के लिए बहुत से प्रेम करती है और आसक्ति बहुत के
लिए एक से प्रेम करती है I आसक्ति में स्वार्थ से आत्मतुष्टि होती है और भक्ति में
परार्थ से आत्मतुष्टि होती है I
भक्ति की अनुरक्ति सत में
है और आसक्ति का नशा स्वार्थ में , अहम में है I आसक्ति काम की पत्नी है और भक्ति
प्रेम की छोटी बहन है I
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