sअत्यानुसरन भाग-5

                        सत्यानुसरण भाग -5

श्री श्री ठाकुर अनुकूल चन्द्र जी सत्यानुसरण में कहते है - जिन्हें तुमने चालक रूप में मनोनीत कर लिया है , उनसे अपने ह्रदय की बात गोपन न करो I गोपन करना उन पर अविश्वास करना है  और अविश्वास में ही है अध: पतन । चालक अन्तर्यामी है , यदि ठीक ठीक विश्वास हो तो तुम कुकार्य कर ही नही सकोगे, और यदि कर भी लोगे तब निश्चय ही स्वीकार करोगे , और गोपन करने की इच्छा होते ही समझो , तुम्हारे ह्रदय में दुर्वलता आई है एवं अविश्वास ने तुम पर आक्रमण किया हैहै । 

 तुम यदि गोपन करते हो , तुम्हारे सतचालक भी छिपे रहेंगे और तुम अपने ह्रदय का भाव व्यक्त करो , उन्मुक्त बनो , वे भी तुम्हारे सम्मुख उन्मुक्त होंगे , यह निश्चय है । 

गोपन करने के अभिप्राय से चालक को अन्तर्यामी हो , सब कुछ ही जान रहे हो , यह कः कर चालाकी करने से स्वयं पतित होंगे दुर्द्शयों घर दबाएगी । 

ह्रदय –विनिमय प्रेम का एक लक्षण है ;और तुम यदि उसी ह्रदय को गोपन करते हो तो यह निश्चित है की तुम स्वार्थभावपन्न हो , उनको केवल बातों से प्रेम करते हो । काम में गोपनता है , किन्तु प्रेम में तो दोनों के अन्दर कुछ भी गोपन नही रह सकता । 

सतचालक क्षीण अहम् युक्त होते है ;वे स्वम् अपनी क्षमता को तुम्हारे सम्मुख किसी भी तरह जाहिर नही करेंगे , वल्कि इसीलिए तुम्हारे भावानुयायी तुम्हारा अनुसरण करेंगे –और यही है सत –चालक का सवभाव । यदि सत चालक अवलंबन किये हो जो भी करो , भय नही , मरोगे नही ;किन्तु कष्ट के लिए राजी रहो । 

दीन होने का अर्थ गन्दा बने रहना नही है । व्याकुलता का अर्थ विज्ञापन नही वल्कि ह्रदय की एकांत उद्दाम आकांक्षा है । स्वार्थ परता स्वाधीनता नही , वल्कि स्वाधीनता का अन्तराय (बाधक) है । तुम जितने लोगे के सेवा करोगे उतने लोगो के यथा सर्वस्व के अधीश्वर बनोगे । तेज का अर्थ क्रोध नही , बल्कि विनय समन्वित दृढ़ता है । साधू का अर्थ जादूगर नही , बल्कि त्यागी प्रेमी है । भक्त का अर्थ  क्या अहमक (बेवकूफ ) हैं ?बल्कि विनीत अहमयुक्त ज्ञानी है । सहिष्णुता का अर्थ पलायन नही , प्रेम सहित आलिंगन है । क्षमा करो , किन्तु ह्रदय से ; भीतर गरम रहकर अपारगतावशत: क्षमाशील होने मत जाओ । विचार काभार , दंड का भार अपने हाथ में लेने मत जाओ : अंतर सहित परमपिता पर न्यस्त करो , भला होगा । 

किसी को भी अन्याय के लिए यदि तुम दंड देते हो , निश्चित रूप से जानो – परमपिता उस दंड को तुम दोनों के बीच तारताम्यानुसार बाँट दोगे । पिता के लिए , सत्य के लिए दुःख भोग करो अनंत शांति पाओगे । तुम सत्य में अवस्थान करो ;अन्याय को सहन करने की चेष्टा करो , प्रतिरोध न करो , शीघ्र ही परममंगल के अधिकारी होगे । 

यदि पाप किये हो , क़तर कंठ से उसे प्रकाश करो , शीघ्र ही सांत्वना पाओगे । सावधान ! संकीर्णता या पाप को गोपन न रखो ; उतरोतर वर्द्धित होकर अतिशीघ्र तुम्हे अध्:पतन के चरम में ले जाएगा । अंतर में जिसे गोपन करोगे वही बृद्धि पायेगा । दान करो , किन्तु दीन होकर , बिना प्रत्याशा के  तुम्हारे अंतर में दया का द्वार खुल जाए , दया के हिसाब से किया गया दान अहंकार का ही परिपोषक होता है । 

जो कातर भाव से तुम्हारा दान ग्रहण करते है , गुरुरूप में वे तुम्हारे ह्रदय में दयाभाव का उद्धोधन करते है ;अतएव कृतज्ञ रहो । जिसे दान दोगे , उसका दुःख अनुभव कर सहानुभूति प्रकाश करो , साहस दो सांत्वना दो , बाद में साध्यानुसार यत्न के साथ दो ;प्रेम के अधिकारी बनोगे –दान सिद्ध होगा । दान करके प्रकाश जितना न करो उतना ही अच्छा –अहंकार से बचोगे । याचक को लौटाओ नही । अर्थ नही तो सहानुभूति , साहस , सांत्वना , मधुर बात ,जो भी एक ,दो- ह्रदय कोमल होगा । दुसरे की मंगल कामना ही अपने मंगल की प्रसूति है ।