सत्यानुसरण भाग-4

                           सत्यानुसरण भाग -4 

श्री श्री ठाकुर जी सत्यानुसरण में कहते है की – एक चाह करते समय दस की चाह मत कर बैठो , एक का ही जिससे चरम हो वही करो , सब कुछ पाओगे । 

जीवन को जिस प्रकार से बलि दोगे , निश्चय उस प्रकार का जीवन लाभ करोगे । 

जो कोई प्रेम के लिए जीवन दान करता है वह प्रेम का जीवन लाभ करता है । 

उद्देश्य में अनुप्राणित रहो और प्रशान्तचित से समस्त सहन करो , तभी तुम्हारा उद्देश्य सफल होगा । ह्रदय दो , कभी भी पश्चादपद होना नही पड़ेगा । निर्भर करो , कभी भी भय नही पाओगे । विश्वास करो , अंतर के अधिकारी बनोगे । साहस दो , किन्तु शंका जगा देने की चेष्टा न करो । 

धैर्य धरो , विपत्ति कट जायेगी । अंहकार न करो , जगत में हिन् होकर रहना नही पड़ेगा । 

किसी के द्वारा दोषी बनाने के पहले ही कातर भाव से अपना दोष स्वीकार करो , मुक्तकलांक  होगे , जगत के स्नेह के पात्र बनोगे । संयत रहो , किन्तु निर्भीक बनो । सरल रहो ,किन्तु बेवकूफ न बनो । विनीत रहो , इसका अर्थ यह नही की दुर्बल –ह्रदय बनो । 

निष्ठा रखो , किन्तु कट्टर मत बनो । साधू न साजो , साधू बनने की चेष्टा करो । 

किसी महापुरुष के साथ तुम अपनी तुलना न करो; किन्तु सर्वदा उनका अनुसरण करो । 

यदि प्रेम रहे तब पराये को “अपना” कहो , किन्तु स्वार्थ न रखो । 

प्रेम की बात बोलने से पहले प्रेम करो । 

अन्धा होना दुर्भग्य की बात है ठीक ही , किन्तु यष्टि (लाठी खोना )होना और भी दुर्भाग्य है ; कारण यष्टि ही आँखों का बहुत –सा काम करती है । 

श्री श्री ठाकुर अनुकूल कहते है - स्कूल जाने से ही किसी को छात्र नही कहते , और मन्त्र लेने से ही किसी को शिष्य नही कहते , ह्रदय को शिक्षक या गुरु के आदेश पालन के लिए सर्वदा उन्मुक्त रखना चाहिए ।अंतर में स्थिर विश्वास चाहिए  वे जो भी बोल देंगे वही करना होगा , बिना आपत्ति के ,बिना हिचकिचाहट के ,बल्कि परम आनंद से । 

जिस छात्र या शिष्य ने प्राणपण से आनंद सहित गुरु का आदेश पालन किया है वह कभी भी विफल नही हुआ । 

शिष्य का कर्तव्य है प्राणपण से गुरु के आदेश को कार्य में परिणित करना , गुरु को लक्ष्य करके चलना । 

जभी देखोगे , गुरु के आदेश से शिष्य को आनंद हुआ है , मुख प्रफुल्लित हो उठा है , तभी समझोगे की उसके ह्रदय में शक्ति आई है । 

खबरदार , किसी को हुक्कम देकर अथवा नौकर – चाकर द्वारा गुरु की सेवा –सुश्रुषा कराने न जाना –प्रसाद से वंचित मत होना । 

माँ अपने हाथों से बच्चो का यत्न करती है , इसलिए वहाँ पर अश्रधा नही आती – इससे तो इतना प्यार है । 

अपने हाथों से गुरुसेवा करने से अहंकार पतला होता है , अभिमान दूर होता है और प्रेम आता है । 

गुरु ही है भगवान की साकार मूर्ति , और वे ही है अखण्ड (ABSOLUTE)

गुरु को अपना समझना चाहिए –माँ , बाप , पुत्र इत्यादि घर के लोगो का ख्याल करते समय जिससे उनका भी याद आये ।  उनकी भत्यर्सना का भय करने की अपेक्षा प्रेम का भय करना ही अच्छा है ;मै यदि अन्याय करूँ तो उनके प्राण में व्यथा लगेगी । 

सब समय उन्हें अनुसरण करने की चेष्टा करो ; वे जो कहे यत्न के साथ उनका पालन क्र अभ्यास में चरित्रगत करने की नियत चेष्टा करों ; और वही साधना है । 

तुम गुरु या सत में चित संलग्न करके आत्मोन्नयन में यत्नवान रहो , दुसरे तुम्हारे विषय में क्या बोलते है – देखने जाकर आकृष्ट न हो पड़ो – ऐसा करने से आसक्त हो पड़ोगे , आत्मोन्नयन नही होगा । स्वार्थ बुद्धि बहुधा आदर्श पर दोषारोपण करती है , संदेह ला देती है , अविश्वास ला देती है । स्वार्थबुद्धिवश आदर्श में दोष मत देखो , संदेह न करो , अविश्वास न करो – करने से आत्मोत्रयन नही होगा । 

 स्वार्थ मुक्त होकर आदर्श में दोष देखने पर उसका अनुसरण मत करो –करने से आत्मोत्रयन नही होगा । 

आदर्श के दोष है – मूढ़ अहंकार , स्वार्थ चिंता , अप्रेम । अनुसरंकारी के दोष है – संदेह , अविश्वास , स्वार्थबुद्धि । 

 जो प्रेम के अधिकारी है , नि:संदेह चित से उनका ही अनुसरण करो , मंगल के अधिकारी होगें । जो छल- बल - कौशल से चाहे जैसा भी क्यों न हो सर्वभूतो की मंगल चेष्टा में यत्नवान है ,उनका ही अनुसरण करों , मंगल के अधिकारी होंगें । 

जो किसी भी प्रकार से किसी को भी दुःख नही देते , पर असत को भी प्रश्रय नही देते , उनका ही अनुसरण करो ।