सत्यानुसरण भाग-3

                      सत्यानुसरण भाग -3

श्री श्री ठाकुर  अनुकूल चन्द्र जी ने सत्यानुसरण में कहा है की तुम्हारा बंधू अगर कुपथ पर जाता है और तुम यदि उसे लौटने की चेष्टा नही करते हो या उसका परित्याग करते हो तो उसकी सजा तुम्हे भी नही छोड़ेगा । 

बन्धु की कुत्सा न फैलाओ या किसी भी तरह दुसरे के निंदा न करो ;किन्तु इसका अर्थ यह नही की उसके निकट किसी की बुराई भी करो । 

बन्धु के निकट उद्धत न बनो किन्तु प्रेम के साथ अभिमान से उस पर शासन करो । बन्धु से कुछ इच्छा (प्रत्याशा ) न रखो किन्तु जो भी पाओ , प्रेम सहित उसे ग्रहण करो । कुछ भी देने पर पाने की आशा न रखो , किन्तु कुछ पाने पर देने की चेष्टा भी करो । 

जितने दिनों तक तुम्हारे शारीर और मन में व्यथा लगती है , उतने दिनों तक तुम एक चीटीं की व्यथा के निराकरण की ओर चेष्टा रखो और ऐसा नही करते हो तो तुमसे बढ़कर हीन और कौन हो सकता है ?

यदि अपने कष्ट के समय संसारी बनते हो तो दुसरें के समय ब्रह्मज्ञानी मत बनो । बल्कि अपने दुःख के समय ब्रह्मज्ञानी बनो और दुसरे के समय संसारी , ऐसा कृत्रिम –भाव भी अच्छा है । 

ठाकुर जी कहते है की यदि मनुष्य हो तो अपने दुःख में हँसो और दुसरे के दुःख में रोओ । 

अपनी मृत्यु यदि नापसंद करते हो तो कभी भी किसी को ‘मरो’ न कहो । 

हँसो किन्तु विद्रुप में नही । 

रोओ , किन्तु आसक्ति में नही , प्यार में , प्रेम में । 

बोलो, किन्तु आत्मप्रशंसा या ख्याति विस्तार के लिए नही । 

तुम्हारे चरित्र के किसी भी उदहारण से यदि किसी का मंगल हो तो उससे उसको गुत्प मत रखो । 

तुम्हारा सतस्वभाव कर्म में प्रस्फुटित हो , किन्तु अपनी भाषा में व्यक्त न हो , नजर रखों । 

सत में अपनी आसक्ति संलग्न करो , अज्ञात भाव से सत बनोगे । तुम अपनी तरह से सत –चिंता में निमग्र रहो , तुम्हारे अनुयायी भाव स्वयं ही फूट निकलेंगे । 

असत –चिंता जिस प्रकार दृष्टि में, वाक्य में , आचरण में , व्यवहार इत्यादि में व्यक्त हो जाती है , सत – चिंता भी उसी प्रकार व्यक्त हो जाती है । 

स्पष्टवादी रहो , किन्तु मिष्टभाषी बनो । 

बोलने में विवेचना करो , किन्तु बोलकर विमुख मत हो । यदि भूल बोल चुके हो , सावधान हो जाओ भूल नही करो । 

सत्य बोलो , किन्तु संहार न लाओ । सत बात बोलना अच्छा है , किन्तु सोचना अनुभव करना और भी अच्छा है । असत बोलने की अपेक्षा सत बात बोलना अच्छा है निश्चय , किन्तु बोलने के साथ कार्य करना एवं अनुभव न रहा हो क्या हुआ ?-वायलीन , बीणा जिस तरह वादक के अनुग्रह से बजती तो अच्छी है , किन्तु वे स्वयं कुछ अनुभव नही कर सकती । 

जो अनुभूति की खूब गपें मारता है पर उसके लक्षण प्रकाशित नही होते , उसके सभी गपें कल्पनामात्र या आडम्बर ही है । 

जैसे अनार पकते ही फट जाता है , तुम्हारे अंतर में सतभाव परिपक्व होते ही स्वत: ही फट जाएगा –तुम्हे खुद से उसे व्यक्त करना न होगा । जो ख्याल विवेक का अनुचर है उसी का अनुसरण करो , मंगल के अधिकारी  बनोगे । जो कर्म मन का प्रसारण ले आता है वही सुकर्म है और जिससे मन में संस्कार , कट्टरता इत्यादी आते है , फलस्वरूप , जिससे मन संकीर्ण होता है वही कुकर्म है । 

जिस कर्म को मनुष्य के सामने कहने से मुँह पर कालिमा लगती है , उसे करने मट जाओ । जहाँ गोपनता है ,घृणा –लज्जा –भय से वही दुर्बलता है , वही पाप है । 

जो साधना करने से ह्रदय में प्रेम आता है वही करो और जिससे क्रूरता , कठोरता ,हिंसा आती है , वह फिलहाल लाभजनक हो तो भी उसके नजदीक मत जाओ । 

तुमने यदि ऐसी शक्ति प्राप्त कर ली है जिससे सूर्य - चन्द्र को कक्षच्युत कर सकते हो , पृथ्वी को तोड़कर टुकड़ा- टुकड़ा कर सकते हो या सभी को ऐश्वर्यशाली कर  दे सकते हो , किन्तु यदि ह्रदय में प्रेम नही रहे तो तुम्हारा कुछ हुआ ही नही ।