सत्यानुसरण भाग-6

                             सत्यानुसरण-6

ठाकुर अनुकूल चन्द्र के अनमोल वाणी में कहा गया है की –पड़े –पड़े मरने से चलकर मरना अच्छा है । जो बोलने में कम , काम में अधिक है , वही है प्रथम श्रेणी का कर्मी ;जो जैसा बोलता है , वैसा ही करता है, वह है मध्यम श्रेणी का कर्मी , जो बोलता अधिक है , करता कम है , वह है तृतीय श्रेणी का कर्मी , और जिसे बोलने में भी आलस्य , करने में भी आलस्य , वही है अधम । 

दौड़कर जाओ , किन्तु हाँफ न जाना ; और ठोकर खाकर जिससे गिर न पडों , दृष्टी रखो । 

जिस काम में तुम्हे विरक्ति और क्रोध आ रहे है , निश्चय जानो वह व्यर्थ होने को है । कार्य साधन के समय उससे जो विपदा आएगी , उसके लिए राजी रहो ;विरक्त या अधीर न होना , सफलता तुम्हारी दासी होगी । 

चेष्टा करो , दुःख न करो , कातर मत हो जाओ , सफलता आएगी ही । कार्यकुशलता का चिह्न दुःख का प्रलाप नही । उत्तेजित मस्तिष्क और वृथा आडम्बरयुक्त चिंता – दोनों ही असिद्धि के लक्षण है । विपदा को धोखा देकर और परास्त कर सफलता –लक्ष्मी लाभ करों ;विपदा जिससे तुम्हे सफलता से वंचित न करों । सुख अथवा दुःख यदि तुम्हारा गतिरोध नही करे तब तुम निश्चय गंतव्य पर पहुँचोगे, संदेह नही । 

धनि बनो क्षति नही , किन्तु दीन एवं दाता बनो । धनवान यदि अहंकारी होता है , वह दुर्दशा में अवनत होता है । दीनताहीन अहंकारी धनि प्राय: अविश्वासी होता है, और उसके ह्रदय में स्वर्ग का द्वार नही खुलता । अहंकारी धनि मलिनता का दस होता है , इसीलिए ज्ञान की उपेक्षा करता है । 

क्षमा करों , किन्तु क्षति मत करो । प्रेम करों , किन्तु आसक्त मत हो जाओ । खूब प्रेम करों , किन्तु घुलमिल मत जाओ । बक-बक करना पूर्णत्व का चिह्न नही । यदि स्वयं संतुष्ट या निर्भावना हुए हो तो दुसरे के लिए चेष्टा करों । 

जिस परिमाण में दुःख के कारण से मन संलन होकर अभिभूत होगा , उसी परिमाण में ह्रदय में भय आयेगा एवं दुर्बलग्रस्त हो पड़ेगा । यदि रक्षा पाना चाहते , भय एवं दुर्बलता नाम की कोई चीज़ मत रखो , सतचिंता एवं सतकर्म में डूबे रहो । 

असत में आसक्ति से भय , शोक एवं दुःख आते है । असत का परिहार करो , सत में आस्थावान बनो , त्राण पाओगे । सत चिंता में निमज्जित रहो , सत्कर्म तुम्हारा सहाय होगा एवं तुम्हारा चतुर्दिक सत होकर सब समय तुम्हारी रक्षा करगा ही । 

धर्म को जानने का अर्थ है विषय के मूल कारण को जानना और वही जानना ज्ञान है । उस मूल के प्रति अनुरक्ति ही है भक्ति ;और भक्ति के तारतम्यानुसार ही ज्ञान का भी तारतम्य होताहै  । जितनी अनुरक्ति से जितना जाना जाता है , भक्ति और ज्ञान भी उतना ही होता है । 

तुम विषय में जितना आसक्त होते हो , विषय सम्बन्ध में तुम्हारा ज्ञान भी उतना ही होता है । जीवन का उद्देश्य है अभाव को एकदम भगा देना और वह केवल कारण को जानने से ही हो सकता है । अभाव से परिश्रान्त मन ही धर्म या ब्रह्मजिज्ञासा करता है , अथवा नही करता । किसके अभाव मिटेगा और किस प्रकार , ऐसी चिंता से ही अंत में ब्रह्मजिज्ञासा आती है । जिस पर विषय का अस्तित्व है वही है धर्म ;जब तक उसे नही जाना जाता तब तक विषय की ठीक –ठीक जानकारी नही होती । 

जो भाव विरुद्ध भाव द्वारा आहत या अभिभूति नही होता , वही है विश्वास । विश्वास नही  रहने पर दर्शन कैसे होगा ?क्रम विश्वास का अनुसरण करता है, जैसा विश्वास , क्रम भी वैसा ही होता है । 

गहरे विश्वास से सब हो सकता है । विश्वास करो,- सावधान ! अहंकार , अधैर्य और विरक्ति जिससे न आये –जो चाहते हो वही होगा । विश्वास ही विस्तार और चैतन्य ला दे सकता है और अविश्वास जडत्व , अवसाद , संकीर्णता ले आता है । 

विश्वास युक्ति – तर्क के प्रे है ; यदि विश्वास करते हो जितने युक्ति –तर्क है तुम्हारा समर्थन करेंगे ही । तुम जिस तरह विश्वास करोगे, युक्ति –तर्क तुम्हारा उसी तरह समर्थन करेंगे । 

भाव में ही है विश्वास की प्रतिष्ठा  । युक्ति – तर्क विश्वास नही ला सकता । भाव जितना पतला ,विश्वास उतना पतला , निष्ठा भी उतनी कम । विश्वास है बुद्धि की सीमा के बहार ;विश्वास- अनुयायी बुद्धि  होती है । बुद्धि में ‘हाँ-ना’ है ,संशय है; विश्वास में ‘ हाँ- ना ’ नही ,संशय भी नही । 

जिसका विश्वास जितना कम है वह उतना (UNDEVELOPED ) अविकसित है , बुद्धि उतनी कम तीक्षण है । तुम पंडित हो सकते हो ,किन्तु यदि अविश्वासी हो तब तुम निश्चय ग्रामोफोन के रेकॉर्ड अथवा भाषावाही बैल की तरह हो । जिसका विश्वास पक्का नही उसे अनुभूति नही ; और जिसे अनुभूति नही , वह फिर पंडित कैसा ?

जिसकी अनुभूति जितनी है , उसका दर्शन ज्ञान भी उतना है और ज्ञान में ही है विश्वास की दृढ़ता । यदि विश्वास न करो , तुम देख भी नही सकते ,अनुभव भी नही कर सकते । और वैसा देखना एवं अनुभव  करना विश्वास को ही पक्का कर देता है ।