सत्यानुसरण भाग-2

                        सत्यानुसरण - 2 

श्री श्री ठाकुर जी ने कहा है की अगर तुम दूसरों जैसा पाने की इच्छा रखते हो , तो दूसरों को वैसे ही देने की चेष्टा करनी चाहिए इससे सभी तुम्हे पसंद करेंगे , प्यार करेंगे , घुल मिल जायेंगे । 

स्वयं ठीक रहकर सभी को अच्छे भाव सत भाव से खुश करने की चेष्टा करो ,तुम्हे भी खुश करने की चेष्टा करेंगे तुम देखना । खोकर किसी को भी खुश करने नही जाओ अन्यथा तुम्हारी दुर्गति हो सकती है । 

तुम्हारे दर्शन की , ज्ञान की सीमा जितनी है भाग्य ठीक उसके ही आगे है ,देख नही पाते , जान नही पाते हो , इसलिए भाग्य (अदृष्ट ) है । 

अपने अन्दर शैतान रूपी अहंकारी अहम् यानी “ मै” को निकालकर दूर बाहर फेकों । अपनी सभी अवस्थाओं में उनकी मंगल-इच्छा जानने की , समझने की कोशिश करों ।  काम करते जाओ , अदृष्ट सोचकर निराश,  हताश मत हो जाओ , आलसी मत बनो जैसा काम करोगे तुम्हारे भाग्य (अदृष्ट ) वैसे ही बनकर दृष्ट होंगे जो सतकर्मी होते है उनके काम कभी भी अकल्याण नही होते कल्याणकारी ही होते है चाहे एक दिन पहले या एक दिन बाद । 

बहुत लोग यह चोचकर की अदृष्ट में नही है , पतवार छोड़कर बैठ जाते है , जबकि निर्भरता भी नही है अंत में सारा जीवन दुर्दशा में काटते है , यह सब बेवकूफी है । यथाशक्ति सेवा करो , किन्तु सावधान , सेवा करों , किन्तु सावधान सेवा लेने की जिससे इच्छा न जगे । 

अनुरोध करों , किन्तु हुक्म मत करों । कभी भी निंदा न करों ,किन्तु असत्य को प्रश्रय मत दो । धीर बनो , किन्तु आलसी , दीर्घसूत्री मत बनो । क्षिप्र बनो , किन्तु अधीर होकर विरक्ति को बुलाकर सब कुछ नष्ट मत कर दो । 

वीर बनो , किन्तु हिंसक होकर बाघ –भालू जैसा न बन जाओ । स्थिरप्रतिज्ञ रहो , जिद्दी मत बनो । 

तुम स्वयं सहन करों , किन्तु जो नही कर सकता है तुम उसकी सहायता करो , घृणा को अपने आस –पास भी भटकने मत दो सहानुभूति दिखलाओ , साहस दो । स्वयं अपनी प्रशंसा करने में कृपण बनो, किन्तु दूसरों के समय दाता बनो । 

 

 

सत्यानुसरण   भाग-2

 

जिस पर क्रुद्ध हुए हो , पहले उसे आलिंगन करों , अपने घर पर भोजन के लिए निमंत्रित करो , ह्रदय खोलकर जब तक बातचीत नही करते तब तक अनुताप सहित उसके मंगल के लिए परमपिता से प्रार्थना करो ; क्यों की विद्वेष आते हो क्रमश: तुम संकीर्ण हो जाओगे और संकीर्णता ही पाप है । 

यदि कोई तुम पर कभी भी अन्याय करे , और नितांत ही उसका प्रतिशोध लेना हो तो तुम उसके साथ ऐसा व्यवहार करो जिससे वह अनुतप्त हो ऐसा प्रतिशोध और नही है –अनुताप है तुषानल । उसमे दोनों का मंगल है । 

बंधुत्व ख़ारिज न करो अन्यथा सजा के वक्त संवेदना एवं सांत्वना नही पाओगे । तुम्हारा बन्धु अगर असत भी हो उसे न त्यागो बल्कि प्रयोजन होने पर उसका संग बंद करों , किन्तु अंतर में मन में श्रद्धा रखकर विपत्ति-आपत्ति में कायमनोवाक्य से सहायता करो और अनुतप्त होने पर आलिंगन करो।