सत्यानुसरण भाग-1

 सत्यानुसरण भाग-1 (SATYANUSARAN )

अर्थ ,मान , यश इत्यादि पाने की आशा में मुझे ठाकुर बनाकर भक्त मत बनो , सावधान हो जाओ -ठगे जाओगे,तुम्हारा ठाकुरत्व न जागने पर कोई तुम्हारा केंद्र भी नही , ठाकुर भी नही -धोखा देकर धोखे में पड़ोगे I

                                                                                                                                 श्री श्री ठाकुर 

सर्व प्रथम हमे दुर्बलता के विरुद्ध युद्ध करना होगा। साहसी बनना होगा, वीर बनना होगा। पाप की ज्वलंत प्रति मूर्ति है दुर्बलता। भगाओ जितना शीघ्र सम्भव हो उसे भगाओ  , रक्तशोषणकारी, अवसाद- उत्पादक (vampire) एक तरह का जंतु , जो सुप्तावस्था मे किसी जीव जंतु का खून चुस्ता है, जो दूसरों का रक्त चूसता है । स्मरण करो तुम साहसी हो, स्मरण करो तुम शक्ति के तनय हो। स्मरण करो तुम परमपिता के संतान हो। पहले साहसी बनो, अपकट बनो। तभी समझा जायेगा, धर्मराज्य मे प्रवेश का अधिकार हुआ। 

थोड़ी सी भी दुर्बलता रहने पर तुम ठीक- ठीक अकपट नही हो सकोगे, जब तक तुम्हारे मन मुख एक नही होते तब तक तुम्हारे अंदर की मालिनता दूर नही होगी। 

मन मुख एक होने पर भीतर मलिनता नही जम सकती- गुप्त मैल भाषा के जरिये निकल पड़ते है I पाप उसके अन्दर घर नही बना सकता I

विफलता दुर्बलता नही है ,बल्कि चेष्टा न करना ही दुर्बलता है I कुछ करने के लिए प्राणपण से चेष्टा करने पर भी यदि तुम विफलामनोरथ होते हो तो क्षति नही I तुम छोडो नही , वह अम्लान चेष्टा ही तुम्हे मुक्ति की ओर ले जाएगी I तुम चेष्टा करना मत छोड़ो चेष्टा ही तुम्हे मुक्ति की ओर ले जाएगीI  I 

दुर्बल मन चिरकाल ही संदिग्ध रहता है -वह कभी भी निर्भर नहीं कर सकता I विश्वास खो बैठता है -इसलिए प्राय:रुग्र ,कुटिल,इन्द्रिय परवश होता है उसके लिए सारा जीवन ज्वालामय है I अंत में  अशांति में सुख –दुःख डूब जाता है – क्या सुख है, क्या दुःख है नही कह सकता पूछे जाने पर कहता है- अच्छा हूँ पर अन्दर अशांति अवसाद से जीवन क्षय होता रहता हैI

दुर्बल ह्रदय में प्रेम-भक्ति का स्थान नही दुसरें की दुर्दशा देख ,व्यथा  देख ,अपनी दुर्दशा व्यथा या  मृत्यु की आशंका कर भय हो पड़ना , निराश होना या रो कर आकुल होना –ये सभी दुर्बलताए हैI जो शक्तिमान है ,वे चाहे जो भी करे , उनकी नज़र रहती है निराकरण की ओर ,-जिससे उन सभी अवस्थाओ में कोई विध्वस्त न हो , प्रेम के साथ  उसके ही उपाय की चिंता करना -बुद्धदेव को जैसा हुआ था I वही है सबल ह्रदय का दृष्टान्त I 

 तुम मत कहो की तुम भीरु हो, मत कहो की तुम दुराशय हो , मत कहो की कापुरुष हो , परमपिता की ओर देखो और  आवेग सहित बोलो की –हे पिता मै तुम्हारी ही संतान हूँ मुझमे अब जड़ता नही , दुर्बलता नही , मै अब कापुरुष नही , तुम्हे भूलकर मैं अब नरक की ओर नही दौरुंगा और तुम्हारी ज्योति की ओर पीठ फेरकर ‘अन्धकार –अंधकार कह चीत्कार नही करूँगा

अनुताप करो , किन्तु स्मरण रखो जिससे पुनः अनुताप न होना पड़े I जभी अपने कुकर्म के लिए तुम अनुताप होगे , तभी परमपिता तुम्हे क्षमा करेंगे और क्षमा मिलने पर ही समझोगे ,तुम्हारे ह्रदय में पवित्र सांत्वना आ रही है और तभी तुम विनीत , शांत और आनन्दित होगे I 

जो अनुताप होकर भी पुनः उसी प्रकार के दुष्कर्म में रत होता है , समझना की वह शीघ्र ही अत्यंत दुर्गति में पतित होगा I सिर्फ मौखिक अनुताप तो अनुताप है ही नही , बल्कि वह अंतर में अनुताप आने का और भी बाधक हैI प्रकृत अनुताप आने पर उसके सभी लक्षण ही थोडा बहुत प्रकाश पाते है I

जगत में मनुष्य जो कुछ भी दुःख पता है उनमे अधिकांश ही कामिनी कांचन की आसक्ति से आते है , इन दोनों से जितनी दूर हटकर रहा जाय उतना ही मंगल I 

भगवान श्री श्री रामकृष्ण देव ने सभी को विशेष रूप से कहा है , कामिनी कांचन से दूर दूर बहुत दूर रहो कामिनी से काम हटा देने से ही ये माँ हो पड़ती है I विष अमृत हो जाता है I और माँ , माँ ही है ,कामिनी नही I 

माँ शब्द के अंत में  "गी " जोड़कर सोचने से ही सर्वनाश I सावधान ! माँ को मागी सोच न मरो I 

प्रत्येक की माहि है जगतजननी ! प्रत्येक नारी ही है अपनी माँ का विचित्र रूप , इस प्रकार सोचना चाहिए I 

मातृभाव ह्रदय में प्रतिष्ठित हुए बिना स्त्रियों को स्पर्श नही करना चाहिए - जितनी दूर रहा जाए उतना ही अच्छा ,यहाँ तक कि मुक्दर्शन तक नही करना और भी अच्छा है I 

मेरे काम-क्रोधादि नही गये , नही गये -कहकर चिल्लाने से वे कभी नही जाते I ऐसा कर्म , ऐसी चिंता का अभ्यास कर लेना चाहिए जिससे काम -क्रोधादि की गंध भी नही रहे -मन जिससे उन सबको भूल जाए I 

मन में काम -क्रोधादि का भाव नही आने से वे कैसे प्रकाश पायेंगे ?उपाय है -उच्चतर उदार भाव में निमज्जित रहना I 

सृष्टित्व ,गणित विधा ,रसायन शास्त्र इत्यादि की आलोचना से काम -रिपु का दमन होता है I कामिनी -कांचन सम्बंधित किसी प्रकार की आलोचना ही उनमे आसक्ति ला दे सकती है I उन सभी आलोचनाओ से जितनी दूर रहा जाए उतना ही अच्छा I 

संकोच ही दुःख है ,और प्रसारण ही सुख है ,जिससे ह्रदय में दुर्बलता आती है , भय आता है –उसमे ही आनंद की कमी है – और वही है दुःख

चाह की अप्राप्ति ही दुःख है I कुछ भी न चाहो सभी अवस्थाओ में राजी रहो , दुःख तुम्हारा क्या करेगा ?

दुःख किसी का प्रकृतिगत नही , इच्छा करने से ही उसे भगा दिया जा सकता हैI

परमपिता से प्रार्थना करो -तुम्हारी इच्छा ही है मंगल , मै नही जानता , कैसे मेरा मंगल होगा , मेरे भीतर तुम्हारी इच्छा ही पूर्ण हो I और इसके लिए तुम राजी रहो -आनंद में रहोगे I दुःख तुम्हे स्पर्श न करेगा I 

किसी के दुःख के कारण मत बनो , कोई तुम्हारे दुःख का कारण नही बनेगाI

दुःख भी एक प्रकार का भाव है , सुख भी एक भाव है I अभाव का या चाह का भाव ही है दुःख तुम दुनिया के लिए हजार करके भी दुःख को दूर नही कर सकते – जब तक तुम ह्रदय से उस अभाव के लिए भाव को निकाल नही लेते और ये  धर्म ही उसे  कर सकता हैI

यदि साधना में उन्नति करना चाहते हो तो कपट त्यागो कपट व्यक्ति दुसरे से सुख्याति की आशा में अपने आप से प्रवचन करता है I अल्प विश्वास के कारण दुसरे के प्रकृत दान से भी प्रवंचित होता हैI

तुम लाख गैप करो , किन्तु प्रकृत उन्नति नही होने पर तुम प्रकृत आन्नद कभी भी लाभ नही कर सकते I 

कपाटाशय के मुख की बात के अंतर का भाव बिकसित नही होता . इसलिए आनंद की बात में भी मुख पर नीरसता के चिह्न दृष्ट होते है , कारण मुह खोलने से होता ही क्या है , ह्रदय में भाव की स्फूर्ति नही होती I 

अमृतमय जल कपटी ले लिए तिक्त लवणमय होता है , तट पर जाकर भी उसकी तृष्णा निवारित नही होता I 

सरल व्यक्ति उर्द्धदृष्टिसंपन्न के समान होता है I कपटी निम्न्दृष्टिसंपन्न गिद्ध के समान छोटा रहो, किन्तु लक्ष्य उच्च रखो , बड़ा एवं उच्च होकर निम्न्दृष्टिसम्पन गिद्ध के समान होने से लाभ ही क्या हैI

कपटी मत बनो , अपने को न ठगों दूसरों को भी न ठगों यह बिलकुल ही सत्य बात है Iमन में जमी दूसरों के दोष देखने की प्रवृति आती है , तभी वे दोष तुम्हारे अंदर आकर घर बना लेते हैI तभी बिना समय गवाए उसे नष्ट कर देना चाहिए I नही तो सब नष्ट हो जायेगा I 

तुम्हारी नजर यदि दुसरे का केवल 'कु' - ही देखे तो तुम कभी भी किसी को प्यार नही कर सकते I और जो सत् नही देख सकता व कभी भी सत् नही होता I 

तुम्हारा मन जितना निर्मल होगा तुम्हारी आँखें उतनी ही निर्मल होगी ,और जगत तुम्हारे सामने निर्मल होकर प्रकट होगाI

तुम चाहे जो भी क्यों न देखो , अंतर सहित सबसे पहले उसकी अच्छाई देखने की चेष्टा करो और इस अभ्यास को तुम मंजागत कर लो I तुम्हारी भाषा यदि कुत्सा-कलंक जडित ही हो , दुसरे की सुख्याति नही कर सके तो किसी के प्रति कोई भी अभिमत प्रकट न करो मन ही मन अपने सवभाव से घृणा करने की चेष्टा करो और बुराई को त्यागने के लिए दृढप्रतिज्ञ बनो I

परनिंदा करना ही दुसरे के दोष को बटोर कर स्वयं कलंकित होना , और दूसरों की सुख्याति करने से अपना स्वभाव अज्ञातभाव से अच्छा हो जाता है I

लेकिन किसी स्वार्थ बुद्धि से दुसरे की सुख्याति नही करनी चाहिए  वह तो खुशामद हैIऐसे क्षेत्र में मन -मुख प्राय: एक नही रहते I यह बहुत ही ख़राब है , और इससे अपने स्वाधीन मत -प्रकाश की शक्ति खो जाती है I 

जिस पर सब कुछ आधारित है ,वही धर्म है ,और वे ही है परम पुरुषI

धर्म कभी अनेक नही होता ,धर्म हमेशा एक ही है , और उसका कोई प्रकार नहीI

मत अनेक हो सकते है I यहाँ तक की जितने मनुष्य है, उतने मत हो सकते है , किन्तु इससे धर्म  अनेक नही हो सकताI

मेरे विचार से हिन्दू धर्म ,मुसलमान धर्म ,इसाई धर्म ,बौध धर्म इत्यादि बाते ये सभी एक मत हैI

किसी भी मत के साथ मत का प्रकृत रूप में कोई विरोध नही , भाव की बिभिन्नता , प्रकार –भेद है – एक का ही नाना प्रकार से एक ही तरह का अनुभव हैI

सभी मत ही है साधना विस्तार के लिए , पर वे अनेक प्रकार के हो सकते है , और जितने विस्तार में जो होता है वही है अनुभूति , ज्ञान इसीलिए धर्म है अनुभूति I 

यदि मंगल चाहते हो , तो ज्ञानाभिमान छोडो , सभी की बाते सुनो और वही करो जो तुम्हारें ह्रदय के विस्तार में सहायक हो ज्ञानाभिमान ज्ञान का जितना अन्तराय (बाधक )है ,उतना और कोई रिपु नही यदि शिक्षा देना चाहते हो, तो कभी भी शिक्षक बनना मत चाहो मै शिक्षक हूँ यही अहंकार किसी को सिखने नही देता अहम् को जितना दूर रखोगे तुम्हारे ज्ञान या दर्शन की सीमा उतनी ही विस्तृत होगी अहम् जब पिघल जाता है , जीव तभी सर्वगुण संपन्न , निर्गुण हो जाता हैI

यदि परीक्षक बनकर अहंकार सहित सद्गुरु अथवा प्रेमी साधुगुरु की परीक्षा करने जाओगे तो तुम उनमे अपने को ही देखोगे ,ठगे जाओगे सद्गुरु की परीक्षा करने के लिए उनके निकट संकीर्ण –संस्कार विहीन होकर प्रेमभरा ह्रदय लेकर , दीन एवं जहाँ तक संभव हो निरहंकार होकर जाने से उनकी दया से कोई संतुष्ट हो सकता हैI

उन्हें अहम् की कसौटी पर कसा नही जा सकता, किन्तु वे प्रकृत दिनतारूपी भेड़े के सिंग पर खंड -विखंड हो जाते है I 

 हीरा जिस तरह कोयला इत्यादि गन्दी चीज  में रहता है ,उत्तम रूप से परिष्कार किये बिना उसमे से ज्योति नही निकलती , वे भी उसी तरह संसार  में अति साधारण जीव की तरह ही रहते है I केवल प्रेम के प्रक्षालन द्वारा ही उनकी दीप्ती से जगत उद्यभासित होता है I प्रेमी ही उन्हें पहचान सकता हैI प्रेमी का संग करो , सत्संग करो वे स्वयं ही प्रकट होंगे I अहंकारी की परीक्षा केवल अहंकारी  ही कर सकता हैIगलित -अहम् को वह कैसे जान सकता है ?उसके लिए एक किंभूतकिमाकार (अदभुत) लगेगा -जिस तरह बज्रमूर्ख के सामने महापंडित I 

सत्य दर्शी का आश्रय लेकर स्वाधीन भाव से सोचो एवं विनय सहित स्वाधीन अभिमत प्रकाश करो पुस्तक पढ़कर पुस्तक मत बन जाओ उसके सार को समझने की चेष्टा करोI बीज प्राप्त करने के भूसी को अलग करोI

ऊपर –ऊपर देखकर किसी चीज को न छोड़ो किसी चीज का शेष देखे बिना उसके सम्बन्ध में ज्ञान ही नही होता है ,और बिना जाने तुम उसके बिषय में क्या अभिमत प्रकाश करोगे ?

जो कुछ क्यों न करो , उसके अन्दर सत्य देखने की चेष्टा करो सत्य देखने का अर्थ ही है, उसके आदि अंत को जानना और वही है ज्ञान  जो तुम नही जानते हो , ऐसे विषय में लोग को उपदेश देने मत जाओI

अपना दोष जानकर भी यदि तुम उसे त्याग नही सकते तो किसी भी तरह उसका समर्थन कर दुसरे का सर्वनाश न करो तुम अगर सत बनते हो तो तुमको देखकर हजार हजार लोग सत हो जायेंगे, और यदि असत बनते हो तुम्हारी दुर्दशा में समवेदना प्रकाश करनेवाला कोई नही रहेगा कारण असत होकर तुमने अपने चतुर्दक को असत बना डाला हैI

तुम ठीक –ठीक समझ लो की तुम अपने अपने परिवार के दश एवं देश के वर्तमान और भबिष्य के लिए उतरदायी हो नाम- यश की आशा में कोई काम करने जाना ठीक नही , किन्तु कोई भी काम निःस्वार्थ भाव से करने पर ही कार्य के अनुरूप नाम यश तुम्हारी सेवा करेंगे हीI

अपने लिए जो भी किया जाय वह सकाम और दुसरो के लिए जो किया जाय वह निष्काम I किसी के लिए कुछ नही चाहने को ही निष्काम कहते है - केवल ऐसी बात नही है I दे दो अपने लिए कुछ मत चाहो देखोगे सभी तुम्हारे होते जा रहे हैI


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